सात्विकता का महत्व और गीता का उपदेश

सात्विकता का महत्व और गीता का उपदेश

यह प्रकृति सत रज तम का मिश्रण है 

और यह हमारा शरीर पंचतत्व का मिश्रण है 

आध्यात्मिक यात्रा दृश्य मान से अदृश्य तक पहुंचने की है

दृश्य मान वाहन को तो अधिकतर सभी संभाल के चलाते हैं एक्सीलेटर ब्रेक और स्टेरिंग तीनों का अधिकतर सही उपयोग करते हैं 

लेकिन यह जो मन इसका एक्सीलेटर इतना तेज दवा रहता है  की  बिना ब्रेक के ही यह मनुष्य को तामसिकता के गड्ढे में गिरती ही रहती है 

गिरती ही रहती है 

गिराती ही रहती है


आरती मे कहा है 

तुम हो एक अगोचर 

तो किस विधि मिलूं दयामय है

उत्तर दिया है विषय विकार मिटाओ पाप हरो देवा


शरीर में तीनों गुण सदैव रहेंगे 


जब तक यह शरीर  पंचतत्व में विलीन नहीं होगा 

मल मूत्र  गंदगी भी समाप्त नहीं होगी

जो कि तम का प्रतीक है और 


जो शरीर में प्राण है  

वह सत का प्रतीक है 

क्योंकि एक प्राण ही 

ऐसा है  जो विकार रहित है


इसीलिए प्राणों यानी सांसों पर पर ध्यान किया जाता है 

मन  (सत और तम का मिश्रण) है 


बुद्धि रुपी सारथी के द्वारा मन को कैसा भी मोड़ दिया जा सकता है


 इसीलिए कमल का उदाहरण दिया जाता है 


जैसे कमल कीचड़ से कभी अलग नहीं हो सकता तो 


यह शरीर भी मरते दम तक मल मूत्र से रहित नहीं हो सकता इसलिए यह तन तो तम से संयुक्त रहेगा लेकिन


हम मन को तम से मुक्त कर सकते हैं 


रज से मुक्त कर सकते हैं 

तीनों गुणों से मुक्त कर

 परमात्मा में लीन हो सकते हैं

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निष्काम सात्विकता कितनी कठिन है


गीता प्रेस द्वारा मुद्रित गीता के सार से स्पष्ट है

गीता प्रेस गोरखपुर की गीता से स्पष्ट है


१. सम्पूर्ण संसारके पदार्थोंमें और कोंमें तृष्णा और फलकी इच्छाका एवं ममता और आसक्तिका सर्वथा अभाव होनेपर भी उनमें सूक्ष्म वासना और कर्तृत्वाभिमान शेष रह जाता है , इसलिये सूक्ष्म वासना और अहंभावके त्यागको ' सातवी श्रेणीका त्याग ' कहा है । २. 

पूर्वोक्त छठी श्रेणीके त्यागको प्राप्त हुए पुरुषकी तो विषयों का विशेष संसर्ग होनेसे कदाचित् उनमें कुछ आसक्ति हो भी सकती है , परंतु इस सातवीं श्रेणीके | त्यागी पुरुषका विषयोंके साथ संसर्ग होनेपर भी उनमें आसक्ति नहीं हो सकती ; क्योंकि उसके निश्चय में एक परमात्माके सिवाय अन्य कोई वस्तु रहती ही नहीं , इसलिये इस त्यागको ' परवैराग्य ' कहा है । 

१. मन , वाणी और शरीर से किसी प्रकार किसीको कष्ट न देना । 

२. अन्त : करण और इन्द्रियों के द्वारा जैसा निश्चय किया हो , वैसा - का - वैसा ही प्रिय शब्दोंमें कहना ।

 ३. चोरी का सर्वथा अभाव ।

 ४. आठ प्रकारके मैथुनों का अभाव । ५. किसी की भी निन्दान करना ।

 ६. सत्कार , मान और पूजादि का न चाहना । 

७. बाहर और भीतर की पवित्रता ( सत्यता पूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अनसे आहार की एवं यथायोग्य बर्ताव से आचरणों की और जल - मृत्तिकादि से शरीर को शुद्धि को तो बाहर की शुद्धि कहते हैं और राग - द्वेष तथा कपटादि विकारों का नाश होकर अन्त : करण का स्वच्छ और शुद्ध हो जाना भीतरकी शुद्धि कहलाती है ) । 

८. तृष्णा का सर्वथा अभाव । 

९ . शीत - उष्ण , सख - दुःख आदि द्वन्दो को सहन करना । ||

१०. स्वधर्म - पालनके लिये कष्ट सहना । 

११. वेद और सत् - शास्त्रोंका अध्ययन एवं भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन । 

१२. मन का वशमें होना । 

१३. इन्द्रियोंका वश में होना । 

१४. शरीर और इन्द्रियोंके सहित अन्त : करणकी सरलता । 

१५. दुःखियों में करुणा । 

१६. वेद , शास्त्र , महात्मा , गुरु और परमेश्वरके वचनोंमें प्रत्यक्षके सदृश विश्वास । 

१७. सत् और असत् पदार्थ का यथार्थ ज्ञान । 

१८. ब्रह्मलोक तक के सम्पूर्ण पदार्थों में आसक्ति का अत्यन्त अभाव ।

 १ ९ . ममत्व बुद्धिसे संग्रह का अभाव ।

 २०. अन्त : करणमें संशय और विक्षेप का अभाव । 

२१. श्रेष्ठ पुरुषों की उस शक्ति का नाम तेज है कि जिसके प्रभाव से विषयासक्त और नीच प्रकृति वाले मनुष्य भी प्रायः पापाचरण से रुककर उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं । 

२२. अपना अपराध करने वाले को किसी प्रकार भी दण्ड देने का भाव न रखना । 

२३. भारी विपत्ति आने पर भी अपनी स्थिति से चलायमान न होना । 

२४. अपने साथ द्वेष रखने वालों में भी द्वेष का न होना । 

२५. सर्वथा भय का अभाव ।

 २६. इच्छा और वासनाओंका अत्यन्त अभाव होना और अन्त : करणमें नित्य निरन्तर प्रसन्नताका रहना । |||

इस कठिन सफर के बाद ही विषय विकार व पाप तीनों ही समाप्त हो जाते हैं

और प्रभु मिलन संभव हो पाता है

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