भक्ति योग

 सर्वे भवंतु सुखिनः 


भक्ति योग 


मनुष्य का मन बंटा रहता है 

संसार में विद्यमान पदार्थों /शक्लों  में


इसलिए मन विभक्त रहता है और 


जब मन केवल एक परमात्मा में अनुरक्त हो जाता है 


तो केवल भक्त ही शेष रहता है

यानी भक्त और परमात्मा के बीच विभेद की दीवार हट जाती है


भक्ति योग में 

भक्त के मन में केवल अपने अराध्य के अतिरिक्त इस संसार में विद्यमान किसी भी पदार्थ/शक्ल की चाह/कामना/वासना नहीं रहती। 


ना उसे पुत्रेषणा ही प्रभावित करती है, 


ना लोकेषणा और 


ना ही वित्तेषणा। 


यह भक्ति मार्ग है, 


जो इसकी गहराई को नहीं समझते हैं, 


वह इसे आसान समझते हैं, 


जबकि यह भी अन्य मार्गों की तरह अत्यंत कठिन है। 


इसमें भक्त का मन उसके आराध्य में ऐसा रमता है कि, उसे उसके अतिरिक्त कुछ नजर नहीं आता, 

हर रंग, 

हर रूप, 

हर आकृति में अपना आराध्य ही नजर आता है। 


जैसे कि नामदेव जी थे 

उनकी रोटी कुत्ता ले गया, 

वह उसके पीछे घी का कटोरा लेकर भागे और 


उस कुत्ते में भी प्रभू को मानते हुए 


कहने लगे कि प्रभू रोटी सूखी नहीं खायें इस पर थोड़ा घी लगा लें। 


यह कहानी सत्य है या असत्य प्रश्न यह नहीं है, 


अपितु समझाने के उद्देश्य से है कि 


उस भक्त का मन यही गाता है कि 


सब में प्रभू का नूर समाया 

कोई नहीं है जग में पराया, 


और इसे ही याद रखते हुए किसी का भी बुरा नहीं करता है, 

चाहे वह जलचर हो, थलचर हो 

या नभचर, 


अपितु हो सके तो भला ही करता है,


क्योंकि एक सच्चा भक्त किसी के साथ बुरा नहीं करता,


क्योंकि बुराई/दुष्कर्म भक्त को उस अदृश्य शक्ति की नजरों से गिरा देते है और


भलाई/शुभ कर्म उस अदृश्य शक्ति की नजरों में भक्त को ऊंचा उठा देते हैं। 


यही भक्ति योग है, जो कि अन्य योगों की तरह अत्यंत कठिन है। 


जिसमें भक्त किसी के भी सुख का कारण बनते हैं 

तो समझते हैं कि प्रभू को सुख पहुंचाया और यदि किसी के दुख का कारण बनते हैं तो समझते है कि प्रभू को दुख पहुंचाया। 


विचार करें कि क्या भक्ति योग भी अन्य योगों की तरह कठिन नहीं? 


क्या इस तरह का नाम जप आसान है?


सबका भला हो

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